शादी

















पलके झपकू तो जानू आंखे है,
मगर आंखे किस काम की।

भागू तो जानू ये धरा है,
मगर ये धरा किस काम की।

अनंत से पिंजरे में बैठी हु,
आखिर मैं किस काम की।

कोहरा भी हो तो परछाई बना लू।
कोहरा भी हो तो परछाई बना लू।

इस अंधकार में ये रूह किस काम की।

दूर कही मुझे मेरी सखी महसूस होती है,
वो भी ऐसे किसी पिंजरे में तड़फ्ती रोती है।

चार छोड़ मैं लाखों दिशाओं में भाग चुकी
उसे पुकार पुकार में थक हर चुकी,
जवाब तो न मिला

जवाब तो न मिला
मगर तन्हाई से में जा भिड़ी।

और तन्हाई को ही साक्षी मान
में नाच पड़ी।

ये नाच से मेरा पिंजरा जा कांपा 
इसे सुन किसी रूह ने झांका।

मैं नाचती रही वो झांकती रही
सोचा उसने
उस शोर, उस अंधेरे में कभी तो कोई दिखेगा।

हसी तो मुझे ज्यों आई
क्योंकि रोशनी वहां कभी न आई

खैर

मैने नाचने और उसने उम्मीद से देखते रहने के सात फेरे लिए

एक एक फेरे में मैं फूट फूट कर रोई, 
तडपन से कांप उठा उसका पिंजरा।
नींद भरे आंखों में वो भी कभी न सोई।

ये बातें वो मुझे महसूस करवाती है
बोल कर चूम सकू
मगर ये पिंजरे मेरे अस्तित्व को रुलाती है।

कई साल हो गए हमे एक दूजे का तमाशा देख।
पिंजरे नज़दीक कर लिए, इक दूजे को लगे है सेक।

अब तो नाच भी धीमा पड़ रहा
उसकी आंखे धुंधली हो रही
तन्हाई का एहसास तो न रहा
मगर रूह फिर भी रो रही

पिंजरे बैठे साथ में मुस्कुराते है
मगर गम इस बात का है कि रूह कहा बतियाती है।

~ Raka

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